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न पलटना उधर
कि जिधर ऊषा के जल में
सूर्य का स्तंभ हिल रहा है
न उधर नहाना प्रिये!,
जहाँ इंद्र और विष्णु एक हो
अभूतपूर्व ! -
यूनानी अपीली के स्वरपंखी कोमल बरबत से
धरती का हिया कँपा रहे हैं
- और भी अभूतपूर्व ! -
उधर कान न देना प्रिये
शंख-से अपने सुंदर कान
जिनकी इंद्रधनुषी लवें
अधिक दीप्त हैं।
उन सँकरे छंदों को न अपनाना प्रिये
(अपने वक्ष के अधीर गुन-गुन में)
जो गुलाब की टहनियों-से-टेढ़े-मेढ़े हैं
चाहे कितने ही कटे-छँटे लगें, हाँ।
उनमें वो ही बुलबुलें छिपी हुई बसी हुई हैं
जो कई जन्मों तक की नींद से उपराम कर देंगी
प्रिये !
एक ऐसा भी सागर-संगम है
देवापगे !
जिसके बीचोंबीच तुम खड़ी हो
ऊध्वस्व धारा
आदि सरस्वती का आदि भाव
उसी में समाओं प्रिये !
मैं वहाँ नहीं हूँ।
(1960)
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